दिसंबर की भोर

नितांत चुप्पी है
निर्वात में बहती हवा
मेरे कानों के पर्दों में
में सरसराहट कर रही है
और मेरे बग़ल में गहन निद्रा मेंबसोए आभास की उसाँसे एक लय में बहती सी किसी
दिव्य मंत्र सा इस तरह सुन रही हूँ।
जैसे में मेडिटेशन सीख रही हूँ।

ऊनी शॉल लपेटे
मैं बरामदे में आती हूँ
पौं फटने को आतुर है।
फूलों को पुचकारती हूँ
ठंडी लहर मेरे मुख पर
पसरी उनींदी लकीरों को मरोड़ देती है
उफ! कितनी सर्दी है।
फिर भी मन को भा रहा है।
यह मीठी सी
यादों को झकझोर कर जिंदा करने वाली सर्दी।

दिसंबर की भोर
मुझे प्रिय है।
मेरे गाँव में बर्फ पड़ रही है
और मैं अपने मुमा-बुबा को
खुली आँखों से बुखारे के करीब बैठे देख रही हूँ…आग तापते
उनकी रसोई वाली कमरें में
मोटी काली ऊनी चुटका
अभी भी मेरे ख़्वाबों में
ज्यों की त्यों तह है।
मुझे यह मौसम बेहद प्रिय है
इस मौसम में मैं मुमा बुबा
के पास ख़्वाबों में दौड़ मिल आती हूँ।
वो घर, वो बचपन देख
फिर एक बार नन्हीं सी बच्ची
और उनके प्रिय खेतों की
नव कोंपल सी पौध बन जाती हूँ।

दिसंबर की भोर
मेरी यादों के सारे पिटारे खोल देती है।
वो बर्फ में ठिठुरती मेरी वेदना,
उगती सुबह की धूप में विलीन हो जाती है।
दिन महीने, दिसंबर पलटते
साल नया आ जाता है।
फिर पीछे से आगे ,आगे से पीछे
होते…..कब ढल जायेंगे।
यह सवाल मन के भीतर
फिर छोड़ जाता है।

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