रोज का सिलसिला है,दफ़्तर जाती हूँ,आती हूँ,आने-जाने के बीच जितनी अवधि शेष होती है,जिम्मेदारियों के बोझ को कुछ हल्का करती हूँ।जितनी हल्की होती जाती हूँ,दस्तूर जैसा…. बोझ भी बढ़ता ही जाता है।वैसे भी उबड़ खाबड़ पहाडियों पर चलने-फिरने के आदी बोझ से कब घबराएं हैं! कभी नही डरी! दुगुनी हिम्मत कर फिर कर्म क्षेत्र में आ डटी हूँ।
आज जब तराई भवन(पंतनगर) में बरसों पुरानी उम्रदराज दो नायाब गहरे मित्रों की जोड़ी से मिलाने श्री मोहन सिंह जी ले गए। वो बरगद और पीपल मुझे सामान्य पेडों जैसे कहीं से भी नही लगे,वो इतिहास सदृश्य लगा, जैसे किसी पुराने सुलझे और बुद्धिमान मित्र से मिल रही हूँ जिनके सानिध्य में जाते ही पूर्णता का अहसास होता है।
इतिहास से मिलना क़िस्मत ही तो होता है।वो भी बरसों पुराना इतिहास! इस दरख़्त की उम्र नही मालूम!वह सैकड़ो सालों से वह इस खुली जमीं और आसमाँ के दैनिक क्रियाकलापों को सजगता से देख रहा है सुन रहा है।मुझे यह देखकर अत्यंत आश्चर्य हुआ कि बरगद और पीपल का पेड़ जिसकी जड़ एक ही है एक दूसरे को सहारा देते हुए इस कदर चारों ओर फैले हैं कि उनकी ही शाखों ने जड़ो का रुप धारण कर बरसों पुरानी दरख़्त को हर मुसीबत से बचाने का भार उठाये हैं।
“कौन इस मजबूत दरख़्त को काट पाया है,पेड़ जितना पुराना होता वह फिर पेड़ नही रह जाता, वह जीता जागता इतिहास होता है।” कोयला बनने के लिए बड़े पेड़ पैदा नही होते। जो घायल होकर छोटी मोटी तूफ़ान से टूट जाते है,जलावन में काम आते हैं। पेड़ों की जिंदगी इंसान को सीख देता है,उस पेड़ के निकट जब हम गए,उसको देख मेरे मुँह से अनायास ही यह वाक्य फूट उठा।
“यह पेड़ नही यूनिवर्सिटी है।” जाने क्यों यह कह बैठी,समझ नही आया! जाने कहाँ से यह उदगार मन में फिर से बैठ आयी..?मैं उसे देखे जा रही थी और वो शायद मुझसे कुछ कहना चाहता हो “तुम भी इन्ही शाखों का एक हिस्सा हो।” प्रसन्नता मुख में बैठ आयी।
मैं वापसी में रास्ते भर सोचती ही रही। क्या मेरे नसीब में उन शाखों की तरह बरसों पुरानी दरख़्त को सहारा देने की लकीरें खींची है..?
यदि हम वह सहारा बन सकें तो यह हमारी सेवा की नायाब यादों में से एक होगी।”क्योंकि नायाब यादें बेशकीमती होती हैं।” और जिसके खरीदार इस भेड़चाल और भीड़ से भरी दुनिया में कम ही मिलते हैं।
आमीन👏💐💐