दिसंबर की भोर

नितांत चुप्पी हैनिर्वात में बहती हवा मेरे कानों के पर्दों मेंमें सरसराहट कर रही हैऔर मेरे बग़ल में गहन निद्रा मेंबसोए आभास की उसाँसे एक

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मैं लिखूँगी

मैं लिखना चाहती हूँउन लोगों के लिए सलाम और दुआजो समाज को अच्छाई दे जाते हैं।प्रत्यक्ष ही नहीअप्रत्यक्ष और दूरगामीलाभ से भीदूसरों को वंचित नही

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वही तो हूँ मैं..

वही तो हूँ मैं.. वही तो हूँ मैं..जैसे तुमपिछली धूप मेंछोड़ गए थे,मुझेअपनी कुछ क़िताबों मेंख़्वाब बुनकररख गये थेमेज परइस अटूट विश्वास के साथक़िपढ़ लूँगीसारे

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