जैसे ही मुझे जानकारी मिली कि मुझे फलाँ तारीख़ को कुमाऊँ यूनिवर्सिटी के वित्त समिति की बैठक में उपस्थित होना है। मन में उत्साह की लहरें स्वतः सवार हो आयी। मेरे दो बड़े भाइयों ने डी.एस.बी परिसर से ही अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी की थी। मेरी माँ को चिट्ठी इसी परिसर में स्थित किसी कोने से लिखी जाती होगी।
ये महसूस कर मैं जाने क्या-क्या न सोच रही थी। मेरे बड़े भाई लोग जब छुट्टियों में गाँव आते थे,नैनीताल की तस्वीरें और अपने पिकनिक की बेहद खूबसूरत फ़ोटो भी साथ ही एल्बम में सजा कर लाया करते थे।और हम कितने देर तलक उस एल्बम को टटोलते रहते थे कि क्या कहूँ कैसे बयां करूँ..! कि आँखों में गहरी झील सुदूर गाँव से ही देख लेते थे। सपने देखने की गहराई चिट्ठी-पत्री से ही शुरू हो गयी थी। मेरे दिवंगत बड़े भाई मितभाषी थे,कम बोलते थे, हम सब छोटी बहिनें उनसे बहुत भय खाते थे। और छोटे भाई इतने हँसमुख व मजाकिया कि वे नैनीताल की खूब सारी बातें रस ले- लेकर सुनाया करते।
अगल बगल के भाई-भाभी, काकू-काकी, चाचा- चाची और हम सब छुटकियाँ बड़े चाव से उनकी बातें सुनते।मेरी याददाश्त बचपन से ही तेज रही है। आशा करती हूँ कि आगे उम्रदराज होने तक भी तेज ही रहे। वरना इन दिनों देख रही हूँ कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में भूलने की बीमारी बड़ी तेजी से अपनी पैठ बना रही है। खैर मैंने तो अभी से ही हल्द्वानी के प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉक्टरों की कहीं बातें गाँठ बाँध ली है कि महिलाओं को 70 के बाद डिप्रेशन और भूलने की बीमारी होना आम है। अभी तो ज़िंदगी का 70 वां कूपा काफी दूर है….फिर भी कोशिश आज से हो जानी चाहिए। सम्भवतः अब रहना हल्द्वानी ही होगा।यही घर बना लिया है सो वृद्धावस्था भी यही गुजारना होगा… सो उपचार भी उन्हीं के हाथ में है फ़िलहाल तो सोचा है,थोड़ा लिखती-पढ़ती रहूँ,ताकि मैं भी दुरुस्त रहूँ और पढ़ने वाले भी दुरुस्त रहें। पढ़ो चाहे लिखो …. एक काम अपनी दिमाग़ी तंदुरुस्ती के लिए भी नही कर सके तो फिर क्या ज़िंदगी जी…! तो इसी सिलसिले में नैनीताल जाने की बात पूरी कर लूँ..! बातें भी बेहद शातिर होती हैं कहाँ से कहाँ ध्यान भटका देती हैं।
सामान्य दिनचर्या से हर आदमी बंधा होता है, रोज वही सुबह-वही शाम ..एक ही रूटीन…. ख़ासकर नौकरीपेशा लोगों का रुटीन तो जीवनपर्यंत ही सीमाओं से जकड़ा रहता है और हम लोग भी अपने दिमाग़ को भी आदतन बाँधे ही रखते हैं। जिस दिन हमारे रुटीन की पटरी बदलती है दिमागी प्लेटफार्म में हलचल शुरू हो जाती है। “भई आज हमें फलाँ जगह जाना है। (देहरादून भी मुझे जब-तब जाना होता है) थोड़ा जल्दी-जल्दी हाथ पैर चलाना होगा। क्योंकि रोज़मर्रा की ज़िंदगी से इतर कुछ बदलाव होने को है।” सोच में जरा सा बदलाव किया नही… फिर देखिए, सब कुछ मशीन की भाँति शरीर कार्य करता है। शरीर मशीन ही तो है। शरीर का सबसे मजबूत इंजन है दिमाग! जिसे शुद्ध सकारात्मक सोच की ईंधन से ही बेहतर माइलेज के साथ चलायी जा सकती है। सोच की नकारात्मक मिलावट ईंधन भरी तो दिमाग तुरंत बैठ जाएगी। सुबह मेरी रोज की तरह आरामतलबी और धीमी नही थी। जिम्मेदारी सोच भी बदल देती है और सक्रिय भी बनाती है। जब शासन से पत्र प्राप्त हुआ कि कुमाऊँ विश्विद्यालय के वित्त समिति की बैठक में वित्त की प्रतिनिधि के रुप में हमें अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी है।
सरकार की प्रतिनिधि के रुप में प्रतिभागिता वास्तव में मेरे लिए गर्व की बात है और सदा रहेगी। व्यक्तिगत कहूँ तो मेरे लिए यह जिम्मेदारी छोटी नही थी। दिनचर्या ने पलटी मार ली,रात को ही मैंने अपने बुद्धि को बोल दिया था कि -“अपनी जैविक घड़ी को सेट कर ले और जरा मुझे सुबह जल्दी उठा देना।” ख़ुदा का शुक्र है कि ठीक 5 बजे कपाल की ड्योढ़ी खुल गयी …….तो आशाओं की तेज रोशनी से आँखें कैसे न खुलती। जैविक घड़ी बड़ी तेज दिमाग रखती है। सुबह उठते ही आँखों में पानी के छींटे मार नीम फेसवाश से मुख साफ़ कर फ़टाफ़ट लैक्मे का पीच मॉइस्चराइजर हथेली में मल मुख में लगाते रसोई की ओर तेजी से भागी,गैस जलाया, भगोने में पानी चढ़ाई..अदरक को महीन- महीन कूट कर चाय पकाने से चाय खूब सुस्वादिष्ट बनती है,कभी ख़ुद भी बनाकर देखिए। “सुबह की चाय तो माशा अल्लाह मैं अपनी तारीफ़ नही करूँगी…क्या खूब बनाती हूँ।” इमामदस्ते……..में ख़ासतौर पर अदरक कूटने की आवाज से …अपना घर तो हुआ ही..मोहल्ले के पाँच घरों के औरतों की नींद में खलल पड़ ही जाती है और वो भी सतर्क हो जाती है।
मन ही मन मुझपर कुड़ भी जाय तो क्या पता …खुद ही जल भूनकर -” बड़ी कच्ची नींद है, हमारी नींद भी ख़राब कर देती है….कितनी व्यस्त है देखो तो फिर भी इत्ती सुबह उठ जाती है। सुबह-सुबह महारानी को चाय की तलब खूब लगती है।” खैर उक्त सोच की बातों पर परवाह किये बिना हमने सुबह के सारे कार्य अन्य दिनों से हटकर फटाफट समय पर पूर्ण कर नैनीताल जाने की तैयारी में जुट गयी। होली के बाद ही ऊनी साड़ियाँ सब आदमकद अल्मारियों में जा चुकी थी। नैनीताल का मौसम …भरोसे लायक बचा कहां..! फिर भी एक रात पहले अलमारियाँ खुल गयी ।दो चार साड़ियाँ निकाली तो नींद की खुमारी में कपूर की गंध से सनी साड़ियाँ अभी नशे में ही थी और मुझे भी नशे से संक्रमित करने को आतुर थी। मैंने अपना मुँह फेर लिया! गंध ने नाक पर दम कर दिया। उफ्फ! अपना सर पकड़ने से होता भी क्या..!
हम ही ने अलमारी और बक्सों में रखी ऊनी कपड़ों पर गोलियाँ रख दी थी ताकि अगली सर्दी तक वे चैन की नींद सोएं। एक ऐतिहासिक यूनिवर्सिटी के वित्त समिति की बैठक कोई छोटी मोटी काम चलताऊ बैठक तो थी नही …स्तर की भी बात होती है… है कि नही…!हर एक दायित्व की गरिमा होती है और इसे हमें ही तो मेन्टेन करना होता है। कोई दो राय नही कि परिधान आपकी व्यक्तित्व को परिष्कृत करती हैं। और सादगी आपके व्यक्तित्व को सौम्यता प्रदान करती है और साड़ी आप में आत्मविश्वास को कूट कूट कर भरती है। मुझे उच्च स्तर के बैठकों में साड़ी धारण करना ही पसंद आता है, हाँ कभी हल्द्वानी से सीधे शासन के सभागार में ही दम भरना पड़े तो सलवार सूट में हल्के रंग जैसे सफ़ेद, क्रीम या ग्रे रंग को महत्व देती हूँ।
हर दिन से जुड़े रंगों में हल्के रंग ही मन को शांत रखते हैं। ड्राइवर शेखर बिल्कुल समय से आ गया।गाड़ी एक दिन पहले हम खुद ही ले आये थे।सो कभी ऐसा नही होता कि हम चाबी उसके ठिकाने पर ना रखे। खामख्वाह चाबी अलमारी में रख बाहर ढूँढते रहे। खैर झुंझुलाहट बिल्कुल नही हुई।क्योंकि हमारे पास पर्याप्त समय था और दिमाग बिल्कुल शांत ..! हम पूजा पाठ से भी सुबह 7 बजे ही निवृत्त हो गए थे, और साड़ियों में कपूर की महक पूरे कमरे में फैल जाने से वो धारण करना कतई उपयुक्त नही था। सोचा की ऊनी सूट ही पहन लूँ…..अलमारी खोल सूट देख रही थी कि हैंगर में एक खादी ऊनी बैंगनी रंग की साड़ी मेरा मुँह ताकते दिख गयी। जाने कैसे वह सूती के बीच फँसकर रही गयी..!ख़ुदा जाने..! नैनीताल जाने की मेरी ख़ुसर फुसर उसने सुन ली हो शायद ….. वो भी मेरी ही राह देख रही थी …।
नैनीताल जाना किसे अच्छा नही लगता! एक झील है जो दिल से भी गहरी भावनाओं से लबालब भरी दिख जाती है तो बड़ा सुकूँ नसीब होता है। बैंगनी साड़ी में सफेद रंग की मोटे ऊनी कपड़े से बनी पूरी बाजू की शर्ट से सेटिंग कराकर हम सफ़र को निकल पड़े।काठगोदाम में कलसिया पुल के मरम्मत की खबर सुन कहीं जाम में न अटक जाय… इस सोच से जरा हट के हम कालाढूंगी वाया मंगोली होते हुए नैनीताल की ओर चल पड़े। कालाढूंगी से जाते समय जंगलों से गुजरना और बड़े-बड़े दरख़्तों को गले लगे देख, न जाने कितने ख़्वाब आँखों की पटल में पाँव पसार आयी थी।
इन राहों में हमने गाड़ी खूब चलायी है, नया गाँव जाते समय मुझे इन्ही राहों से गुजरना होता है।कोविड के बाद से मेरा इन सड़कों से जाना आना बहुत कम हुआ है। आज काफी समय बाद फ़िर उसी राह से गुजरना बहुत यादगार रहा। पहाड़ शुरू होते ही न जाने कितने बदलाव हमने देखे कि यह कहना बहुत पीड़ादायक है,कि अब पहाड़ों पर बेरोजगारी सड़कों पर दिखती है। पहाड़ी सड़कों में जहाँ-तहाँ मैगी पॉइंट, चाय के ढाबे व नींबू पानी के घड़े कुकुरमुत्ते से उग आएं हैं। किनारे से सड़क कई जगह धँसी और कटा हुआ मिला। प्रकृति को एकदम निराश व चिन्ताजनक अवस्था में देखा। बड़े-बड़े चटटानों में वसंत के मौसम में भी हरियाली नही दिखी। पतझड़ के बाद वसंत अपनी मुँह दिखायी की रस्म सी सजी जरूर मिली,परन्तु पतझड़ के निशां अब भी पेड़ो से ही लिपटी थी।
शायद इंसानों की तरह वह भी परिवर्तन को स्वीकार नही कर पा रही थी। पतझड़ को वसंत का स्वागत कर जाना होता है,किन्तु मौसमी चक्र के बदलते तेवर से भिड़ने को पतझड़ ने अभी कमर कस रखा था। ऋतुओं के आपसी द्वंद का असर मानव जीवन पर पड़ना तय है। पहाड़ी सड़कों के मोड़ बड़े खतरनाक होते हैं। एक मित्र की बात जेहन में आ रही थी, वो कहा करते थे कि वह एक परफेक्ट पहाड़ी सड़कों के ड्राइवर है ….कट अच्छा काटते हैं। वैसे मेरा ड्राइवर शेखर भी बहुत अच्छा चालक है।आराम से कुमाऊँ विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर गाड़ी पहुँचा दी। हमने संस्था को आँख मूँदकर मन ही मन प्रणाम किया। मेरे दोनों बड़े भाईयो के शिक्षणस्थल डी.एस.बी कैंपस और मेरी डिग्री प्रदत्त संस्था ….गर्व कैसे न होता भला..! हृदय में कृतज्ञता की भाव तीव्रता से प्रवाहित हो रहा था।
मेरे बहुत से मित्र इसी संस्था से पढ़े-लिखे हैं, उनके मुख से व्यक्त बहुत सी किस्से कहानियों के पात्र मुझे तंग करने की फ़िराक में मुस्कान की टेढ़ी लकीरें मेरी ओर गेंद की भाँति उछाल रही थी। हाँ भई महसूस हो गया था, उनको कि “ये मैडम सेवानिवृति के बाद की लेखिका है” अभी से अपनी सीट बुक करा लो…अपनी बारी का इंतज़ार करना नही पड़ेगा। सारी काल्पनिक पात्र यदा-कदा मेरी बाजू से गुजर मेरा ध्यान गहन विषयों से हटाने की जुगत कर रही थी।तंग खूब करती परन्तु मेरे प्रिय पात्रों को हमने चुपके से पर्स की चैन खोलकर भीतर बिठा दिया। और बैठक समाप्त होने तक मेरे पात्र पर्स पर चुपचाप से दुबके रहे। बैठक में कई महत्वपूर्ण सुझाव हमने संस्था हित में प्रस्तुत किया है,अब संस्था उस सुझाव पर कितना अमल करता है।
ये उनका विवेक है। बाँकी सब ईश्वर की लीला है।कभी मुझे यह महसूस होता है कि इस छोटे से राज्य के अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहरों को उनके स्थापना दिनों के बुद्धिजीवी निर्माता ही संचालित कर रही हैं,जो अब ईश्वर का रुप धर चुके हैं। पन्तनगर विश्विद्यालय को भी हमने गहराई से जाना है औऱ एक ही बैठक में कुमाऊँ विश्विद्यालय को भी महसूस किया है।मुझसे ज्यादा मेरे भाव हर किसी की नब्ज को टटोल लेती है। लब्बोलुआब बैठक अच्छी रही। मेरी संवेदनाएं संस्था की तरक्की के लिए सदैव प्रार्थनारत है संस्था प्रगति के मार्ग में अग्रसर हो। संस्थाओं को शीर्ष तक ले गए पूर्वजों के पुनर्जन्म की दुआ भी कर रही हूँ…. ।
Reading you is the best exercise for me to concentrate on my self🙏